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रिश्तों का सुहाना सफ़र...मैं और तुम

मैं :- इधर आओ तो,
       देखो!! अरे उधर तो देखो,
       हां हां खिड़की के बाहर तो देखो,
       कुछ याद आया...?

तुम :- तुम भी ना
         रुको ज़रा चश्मा ले आता हूँ,
         दूर खिड़की से अब कुछ न दिखाई देता है,
         हूँ.. अब कहो क्या है ऐसा खिड़की के उस पार
         हो रही हो बैचेन,और कर रही हो मुझे परेशान।।

मैं :- क्या तुम्हें सच में नहीं दिखता?
      ग़ौर तो फरमाओ जरा,
      देखो उस आंगन की धूप कितनी नशीली है,
      बारिश के बाद निकलने वाली धूप
      देखो न कितनी चमकीली है,
      वो देखो उस छत पर कबूतरों का एक झुंड है
      गुटूरगु गुटूरगु कर ख़ुद में ही मगन है,
      वो देखो उस पेड़ में आज लाल फूल खिलें है।।

तुम :- ओफों ये कौन सा नया तरीका है भला
         मेरे कमज़ोर आँखों को सताने का,
         जो नहीं देखा जाता उसे ही जबर्दस्ती दिखाने का,
         मुझे नहीं दिखता, तुम ही देखो
        और लिख डालो कोई सुंदर सी कविता
        हो जाएं पूरी तो मुझे भी पढ़कर सुनाना
       आँखे कमजोर है मेरे कान नहीं देखो ये न भूल जाना।।

मैं :- ठीक है फ़िर थोड़ा सा करो इंतजार,
      चाय के साथ मैं ले आती हूँ, लिखने वाले हथियार
       फिर सुनना होगा तुम्हें मेरी पूरी कविता
       ज़्यादा न बनना फ़िर तुम होशियार।।

तुम :- हां हां भाग्यवान
       कब से तो मैं सुनता हूँ मैं तुम्हें
      औऱ हर बार हो जाता हूँ हैरान
       शब्दों के साथ तुम्हारी ये कारीगरी
       मुझे कर देती है निहाल....!!!

मैं :- ठीक है, फ़िर मैं करती हूं लिखना शुरू...!!

                        कविता

सुबह की खिली धुप में,
रंग प्यार का घुल रहा
आंगन में बिछी चारपाई पर
पुराना अचार कोई सुख रहा
पड़ेगी धुप उसपर
स्वाद बढायेगी,
जैसे बदलते वक्त के साथ
मोहब्बत भी सयानी हो जाएगी

कबूतरों का झुंड करता गुटरगूँ
जैसे बातें कई हो रही,
दूर से दिखता वो प्रेमी जोड़ा
कितना मासूम,कितना प्यारा,
कुछ ऐसी ही कहानियां अंत तक जाती है,
कुछ ऐसी कहानियां जीवनसंगिनी बन जाती है,

याद आ जाती है, वो पुरानी बातें
वो स्कूल का बस्ता और उसमें छुपा प्रेमी का ख़त
जैसे कल की ही बातें हो,
जैसे फागुन की ये धूप नशीली
कल ही मेरे आंगन से होकर आयी हो,

सरकते साइकल की वो घिसी घिसी सी आवाज़
जो कहती है हाल ऐ दील,
"ना जा प्रिय मुझसे अब एक पल भी दूर"
मन की बातें रह जाती थी मन मे
ना मिलता था कोई ऐसा साधन
जो खोल आएं मन की गुफ्तगू
और दें आए साथी को
हाल ए दिल का पैग़ाम।।

फ़िर भी प्रेम धड़कता रहा दिलों में,
फ़िर भी प्रेम मचलता रहा लहू में,
फ़िर एक वक्त आया मान मनुहार का
कितनी ही तरकीबें निकली
घरवालों को मनाने का
आख़िरकार जीत गया प्रेम
झुक गयी समाज की रूढ़िवादियां
इस तरह "मैं"- और -"तुम" हम हुएँ।।

घर मे आंगन में फ़िर दो फूल खिले,
परवरिश में उनकी हम
प्रेमी प्रेमिका से अलग होकर
माँ और पिता बने,
फ़िर जवां इश्क़ भी बूढ़ा हुआ,
आँखों की रौशनियां कम हुई,
कलम कागज़ पर चलती है कांपकर,
लेकिन दिलों का वो इश्क़ बरकरार रहा...!!!


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4 Comments

Aliya khan

16-Jun-2021 07:58 AM

बहुत खूब

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Ravi Goyal

15-Jun-2021 10:02 PM

बहुत खूबसूरत रचना 👌👌

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Natash

15-Jun-2021 09:26 AM

वाह , एक बहतरीन कविता मेंम ।

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